गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

मेरा बचपन




बचपन की बाते और यादे कभी कभी हिलोरे मारती है तो मन में अजीब अजीब से ख्याल आते है ,,कभी जहन  में गुस्सा और कभी चेहरे पर मुस्कराहट फ़ैल जाती है, कभी कभी उन्ही वाक्यात को याद करके अपने को सुधरने की कोशिश करता हूँ,,तो कभी अपनी बेटी को देखकर सोचता हूँ की शायद मैं भी कभी इसी की उम्र का रहा होऊंगा और मेरा बचपन इससे कितना अलग था,,,,,,लेकिन फिर अपने माँ बाप का बचपन सोच कर प्रगतिवादी सोच को अपने ऊपर हावी कर लेता हूँ।।।की ये तो लगा धन्धा है ,,,चलता रहेगा शायद मेरे बच्चो के बच्चो का बचपन इनसे भी जुदा होगा, खैर बात अपनी चली है तो थोडा स्वार्थी बना जाँये ,,,और कुछ अपने ही बारे में क्यों ना लिखा जाए ....
शायद मेरे इस लेख को वो लोग अच्छे से समझ पायेंगे जिन लोगो का जनम आर्थिक उदारीकरण आने से बहुत पहले 1975 के आस पास (प्लस माइनस 5 साल)  बुनियाद, मालगुडी डेज , ,,,,या weston , Taxla ,और Uptron टीवी वाले जमाने में हुआ था .
ये वो टाइम था जब सन्डे को दीप्ती नवल या नसीरुद्ददीन शाह की पिक्चर आने का मतलब हम बच्चो के लिये एक बहुत बड़ा मानसिक आघात माना जाता था।  उस समय सिर्फ " अमिता बच्चन (not अमिताभ ), मिथुन्न और धरमेंदर की पिक्चरे ही स्वीकार्य होती थी।...और "नगीना" "वतन के रखवाले" ओर मर्द जैसी  पिक्चर को जिसने 4-5 बार से कम देखा हो उसे कोई भाव नहीं दिया जाता था।हम भी उन बच्चो में हुआ करते थे जो घर में मेहमानों के आते ही दुसरे कमरे के किसी कोने में दुबक के चुपचाप बैठ जाया करते थे.,,,और डरते थे की कही अंकल ने बुला कर नाम पूछ लिया तो क्या कहेंगे। कभी कभार मम्मी बाजार से सामान मंगवाती थी तो उसमे से एक दो रुपये की डंडी मार के अगले दिन स्कूल में छोले चावल खाया करते थे,,,और गलती से घर में पता चल जाए तो ,,सुतान पक्का। आजकल कई न्यूज़ आती है की फलां बच्चे ने एग्जाम में फेल होने पर ये कर लिया ,,,वो कर लिया,,,पर हमारी जमात तो फेल होने पर घर में पड़ने वाली डांट और पिटाई के लिए तैयार होने में बस दो चार घंटे ही लगाती थी।,,सजा के तौर  पर शायद शुक्रवार का चित्रहार नहीं देखने दिया जाता था,,,लेकिन वो भी अगले दिन दोस्त लोग बता देते थे की कौन कौन से गाने आये थे।वो जब सब लोग रात 9 बजे आने वाले एकमात्र सीरियल "इन्तेजार" का इन्तेजार करते थे, और पिक्चर साफ़ ना आने पर हम छत पर चढ़कर एंटीना हिलाया करते थे और छोटी बहने नीचे से चिल्लाती थी ,,भईय्या ...नई आ रहा ,,,नई आया ,,नई आया,,,,,,आ गया, आ गया,  आ गया, चलो निचे आ जाओ अब। ये वो समय था जब सलमा सुलतान और  शम्मी नारंग  8:40 के हिंदी समाचार पढ़ा करते थे।  क्रिकेट के खेल में कैप्टेन वोही बनता था जिसका बैट हुआ करता था ...ये वो समय था VCR  ओर VCP का मतलब एक हि होता था,,,,,और रेस्टोरेंट को सिर्फ होटल और मेन्यु को मीनू बोला जाता था.  शादियों के रिसेप्सन में सबसे ज्यादा भीड़ कॉफ़ी वाली मेज पर हुआ करती थी लोग काफी लेने के बाद भी उसके ऊपर काफी पाउडर डलवाने  के लिये इन्तेजार करते रहते थे . वो समय जब समाज नया नया "चाउमीन" नाम की डिश से अवगत हुआ था जो की उन दिनों हर  शहर के सिर्फ एक ही रेस्टोरेंट में मिला करती थी।और उसे कांटे से खाना एक बहुत बड़ी कला माना जाता था .कुछ ऐसे ही समय में वो ना भूलने वाला बचपन हमने बिताया है,,जब इटली के विश्वकप में फाइनल में हार के बाद माराडोना के साथ हम भी रोये थे। जब हम मिलकर उसे कोसते थे जिसने मैथ नामक विषय बनाया होगा ,,,और इम्तियान में मैथ वाले पेपर के दिन भूकंप या किसी प्राक्रतिक आपदा की कल्पना करते थे। वो दिन जब स्कूल में मास्स्साब कभी कभी कभी किसी बच्चे को इतना धून देते थे की उसकी आँख नाक से पानी निकल जाता था और हालत ऐसी हो जाती थी की जैसे कर्नल गद्दाफी अंत समय में विरोधियो के हाथो बदहवास फंसा पडा था।वो दिन जब विज्ञान के प्रक्टिकल में वर्नियर कलिपर्स की रीडिंग रट्टा  मार के ले जाया करते थे और लेक्लांचे सेल वाला प्रेक्टिकल हमें एटोमिक इन्जिनीरियंग का कोई फलसफा लगता था।...ओर हम यू पी बोर्ड वाले सेन्ट्रल स्कूल वालो को शारीरिक रूप और मानसिक रूप से कमजोर समझते थे ये ही वो समय होते है जहा पर निम्न माध्यम वर्ग के लोग अपने बच्चो की कमिय छुपाने या उनकी खूबिय दिखाने के लिए दूसरो के बच्चो लगभग नीचा दिखाने वाली फब्तिय उनके मुह के सामने , या भरी मेहमानों के बीच ही कर दिया करते थे
अरे ये तो बहुत कमजोर है पढने में,,
अरे इसके गाल इतने पिचके हुए क्यों है,,,,..यार इसके कान तो बिलकुल बंदर कि तऱ्ह है ...
भाई आपका लड़का तो कई सालो से इतने का इतने ही है,,,लम्बा ही नहीं हुआ।।।हमारा लौंडा देखो आप,,,,,,टाँड से चीजे बिना स्टूल लगाए ही निकाल देता है
 अर्रे इसकी हैण्ड  राइटिंग तो बहुत खराब है ...... छमाही में इतने कम नंबर,,,,,,भाई अब तो इसे बोर्ड का देना है,,,,कर पायेगा ये ,,
एक बार मेरे हाथ में कुछ ज्यादा ही चोट लग गयी,,,,तो पडोश के अंकल जी फटाफट आ गए ,,और बोले ,,अरे रे रे ,,जरा दिखाना भाई,,,,,,,अरे रे ,इसका तो लगता है की बोर्ड छुट जाएगा इस बार,,,कैसे लिखेगा ये इम्तियान में ..
कुछ अंकल लोगो की स्टाइल थी की अपने बच्चो की बस प्रशंशा करना ..और उसकी जिद्द को भी खूबी बना के पेश किया जाता था,,,,...जैसे कि - अरे साब  हमारा लड़का तो हजार रूपये से कम का जूता ही नहीं पहनता,,,,,,"ये वो दिन थे जब हम 75 रूपये के पी टी शूज या 125 रूपये के नेपाल से इम्पोर्टेड गोल्डस्टार  के जूते पहनते थे पहनते थे।" , भाई हमारा लड़का तो जब बाजार जाता है ...एक केम्पा  कोला जरूर पीता है,""' ,,,,और तब हम उनका मुह्ह देखते थे की हाय ,,,ये कितना खुशनसीब है,,,,हमें तो एक बार कोल्ड ड्रिंक पी लेते थे तो पूरे गर्मियों के सीजन दुसरे बच्चो को बताते फिरते थे,,,की भाई मेरे चाचा ने मुझे फलां दिन कोल्ड ड्रिंक पिलाई थी।
  .एक बार मैं किसी लोकल बस में था तो मेरे पीछे वाली सीट पर पड़ोस के अंकल बैठे हुए थे ,,वो अपने बच्चो की तारीफ के पुल बाँधने में लगे हुए थे।।।।आजी हमारे लड़के को देखो आप ,,,,मजाल है जो कभी वो आपको अपने कमरे से बाहर दिख जाए, हमेशा पढता रहता है।। ..ओर कभी उसे कहने कि जरुरत नही पडती ,,कि बेटा पढ ले , ओर साब इतना सिंसियर है की उसे कोई मतलब नहीं है खेलने से (ये वो समय था जब खेलना एक नीच और गुंडे लफंगों का काम माना जाता था) ,,,,कोई मतलब नहीं है दोस्तों से,,,..उसे सिर्फ अपनी पढ़ाई से मतलब है,,
अब आप लगा लो की।।। दसवी में फस्टटटट  ..(यहाँ  "ट " शब्द थोडा जोर से , फ़ोर्स लगा कर और आँखे बड़ी बड़ी करके बोला जाता था) ...ग्यारवी में फस्टटटट ....अब देखो बारवी में तो शायद टाप ही कर जाए,,, वो तो कहता है की पापा ...मैं तो बारहवी के बाद  सीधे बरेली जाउंगा ,,,कोचिंग करने,,, मैंने भी बोल दिया ,,बेटा ,,आप बस मेहनत करो,,,बाकी हम पर छोड़ दो।
और बीच में कभी हमारे पर नजर पड़ जाती थी तो फुल्ली ड़ोमिनेटिंग नजरो से पूछते थे,,,अरे तू डोभाल जी  का है ना ...,,,,इधर कहाँ  से तफरी मार के आ रहा है भाई तू (ये वोही अंकल है जो अपने लड़के को थोड़ी देर पहले तक "आप" आप"  कहकर संबोधित कर रहे होते थे)
और जिस किसी के भी रिश्तेदार दिल्ली में रहते थे ,,,तो उनका रुतबा किसी NRI से कम नहीं माना  जाता था,,,,कभी शाम को वोही अंकल जी अपने उन तहेरी बहन के पतीदेव दिल्ली वाले रिश्तेदार को शाम को कालोनी घुमाते हुए मिलते थे तो,,,,,वो दिल्ली वाले रिश्तेदार साहब कमर के पीछे हाथ बाँध कर सड़क के लगभग बीचोबीच खड़े होकर कालोनी और उसके लोगो को ऐसे देखते थे की जैसे प्रिंस चार्ल्स को जिला मुरैना के "गुरैइईया खेड़ा" गाँव में लाकर खड़ा कर दिया होगा,,,,,,,,और गाहे बगाहे जुमला भी मार दिया करते थे,,,,,भाई " डेलही (दिल्ली) में तो मोस्टली हम लोग जल्दी ही डिनर कर लेते है " अरे यहाँ अभी दूरदर्शन ही चलता है,,,,डेलही में तो अब सिर्फ केबल ही चलता है ,,..वापस जाने के समय बस अड्डे में पहुचने के बाद मांग हमेशा डीलक्स बस की ही होती थी।। और ये डेल्ही डेल्ही भी बस तब तक ही चलता था,,,जब तक की वापस छोड़ने के बाद रोडवेज बस मुरादाबाद के आगे तक नहीं पहुच जाती थे,,,उसके बाद तो बस उनके लिए भी दिल्ली ही हो जाता था.
वैसे और पास पडोस के अंकल लोग भी उन रिश्तेदार को भाव चडाने में कोई कोर कसार नहीं छोड़ते थे, भाई आप ठहरे  दिल्ली वाले,,,और ऊपर से सेन्ट्रल गवर्मेंट वाले,,,,,,,,हम यु,पी, वाले तो बस राज्य सरकार के भरोसे है,..और ना चाहते हुए भी ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी के शब्द बोलने की कोशिश करते थे,,..... नहीं जी अब देखिये ये तो कामन सेन्स की बात होती है ....,,,या,,,,भाई वी पी सिंह ने तो ग्रास रूट लेबल पर जाकर काम किया है ....या ,, अरे भाई हमारे सगे फूफा जी के साले साहब आपके ही दिल्ली में रहते है,सेवा नगर में,,,जनवरी में गए थे हम लोग वहा ,,,,भाई आप दिल्ली वाले लोग तो बड़े बीजी रहते है सारे दिन,,,,हमारे बस की तो नहीं है हा हा हा हा हा .
आपकी दिल्ल्ली ,,आपकी दिल्ली ऐसे बोला जाता था की जैसे वाकई दिल्ली उन्ही की होगी,,,, और वो अंकल भी "आपकी दिल्ली' सुनकर ऐसे भाव बनाते थे की जैसे दिल्ली उन्ही की रियासत है और सेवा नगर उनकी दिल्ली रियासत का एक कोई कम जाना पहचाना पिछड़ा दलित  इलाका है।।।...,,,,,,फिर बाद में ,,नहीं हम लोग तो सफदरजंग एन्क्लेव में रहते है।।।यु नो ,,कनाट  प्लेस के पास ही है ..(पास,,,,,,,1० किलोमीटर) . और वो अंकल भी,,हा हा हा ,,याद है मुझे ,,देखा था शायद बस में से ..

ये थी कुछ बाते हमारे बचपन  की ,ये बाते आज से पच्चीस तीस साल पहले की कहानी बयान करती है,,,लेकिन कभी कभी गहराई से देखता हूँ तो लगता है की कुछ ख़ास नहीं बदला हमारा समाज .
आज जबकि हम बड़े हो चुके है तो लगता है की अभी भी सब कुछ वैसा ही है  ,,,हमारे शहरो ने तकनिकी और पहनावे में तो तरक्की करी है लेकिन लोगो की अर्ध सामंती अर्ध्ह पूंजीवादी मानसिकता में कुछ ख़ास परिवर्तन नहीं आया है। अपने विवेक से आज हम अपने बच्चो पर हाथ उठाना गलत मानते है ,,,,,,,,लेकिन अपने और दूसरो के बच्चो में फिर भी कभी कभी कमिया ढूंढ लेते है. लेकिन अच्छा है की हम कोई भी काम करने के बाद या पहले थोडा सोच ही लेते है,लेकिन समाज आज भी उस स्तर तक नहीं पंहुचा है की जहा बच्चो को देश की धरोहर माना जाए और हर बच्चे को सामान दृष्टि से देखा जाए,,,शायद ये अंतर पूंजीवादी समाज में ख़तम होना भी नामुमकिन है .आज भी हम अपने बच्चो को अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाने के वावजूद उनकी उन्ही की क्लास के दुसरे बच्चो से तुलना करने लगते है,,,,की फलां तो इतना तेज है पढने में,,,,और ये भेदभाव 4-5 साल की उम्र से ही शुरू हो जाता है,,जहा बच्चा दुनिया में अपने अस्तित्व का कारण शायद "खाना,पीना,सोना,टीवी , माँ पापा का प्यार  और खेलने से ज्यादा कुछ भी नहीं समझ पाता होगा" .रही बडे लोगो कि बात तो वो भी  सभ्य होने का पैमाना सिर्फ अपने हित और सुविधा के हिसाब से की गयी बाते समझते है ,,,और अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलते ही इंसान दूसरोको गाली देना शुरू कर देता है .
अपना रुतबा दिखाना ,,दूसरो की खुशियों से चिढना, और ना जाने तमाम तरह की असमानताए आज भी घनघोर रूप से समाज में फैली हुई है .
आर्थिक असमानता, वर्गों में विभाजित और मुनाफे के सिद्धान्तो पर  आधारित मानव समाज में संस्कार शायद ऐसे ही फलते फूलते है,

2 टिप्‍पणियां:

  1. कामरेड,

    अच्छा लेख लिखा हैं। हमारे बचपन और आज के बच्चों के बचपन में लाख अन्तर हैं। हमारा बचपन जहाँ पिकनिक, ग्रीष्म काल की छुट्टियों, कॉमिक्स, चित्रहार, रविवार की सुबह The Great Railway Journeys Of The World, Project UFO आदि कार्यकर्म होते थे, वहीँ स्कूली शिक्षा का आतंक भी होता था। जो टीचर सबसे ज्यादा कठोर होता था, विद्यार्थी कामना करते थे की उसकी दुर्घटना हो जाये और वह स्कूल न आये। Pythagoras को कितनी गालियाँ दी, केमिस्ट्री के balancing the equation तो भाईसाब आज तक समझ में नहीं आया :)

    आज के ज़माने के बच्चे टीवी, कंप्यूटर गेम्स, iphone इत्यादि के जंजाल में फंसे हुए हैं, शारीरिक दृष्टि से कमज़ोर और दिमाग से इलेक्ट्रोनिक संयंत्रों के कैदी? एक ज़माना देखा था जिसमे अगर कोई सरकारी अफसर "suspend" कर दिया जाता तो उसका समाज में बहिष्कार हो जाता था, लेकिन आज वहीँ अफसर खींसे निपोरते हुए मिल जायेगा। लिखना बहुत चाहता हूँ पर समय की कमी के कारण फिर कभी लिखूंगा।

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  2. बहुत ही सही पॉइंट बताये है आपने,,,,,....सहमत हूँ आपसे
    इसी को आगे बढाइये और एक पूरा लेख लिख डालिए।।।

    vishva

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